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अगर आपका 'स्कूली विद्यार्थी' वाला जीवन भारत में बीता है, तो यह मानने का कोई विस्तार हो ही नहीं सकता कि आपने रवींद्रनाथ टैगोर लिखित बांग्ला लघुकथा 'काबुलीवाला' को ज्ञात भाषा में न पढ़ा हो। यह हिंदी की किताब में कबीर की साखी न पढ़ने जैसा असामान्य लगता है। पर देब मेढेकर द्वारा निर्देशित 'बायोस्कोपवाला' सम्पूर्ण रूप से 'काबुलीवाला' नहीं। अगर आपको इस बात का मलाल है कि क्यों 'मृणालिनी' मिनी शादी के समय छूटे काबुलीवाले रहमत को पहचान नहीं पाई, इस फ़िल्म को देखकर आपको एक संतुष्टि का अहसास होगा।
यह एक असामान्य कहानी है। आप कहानी की किसी करवट से अपनी ज़िंदगी के किसी मोड़ पे नहीं मिले हैं। और मैं कहानी बताकर आपका मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहता।
बायस्कोपवाला और काबुलीवाला के सिर्फ पेशे अलग हैं। वह मेवा-किशमिश बेचता था, और यह बायस्कोप से बच्चों को चलती हुई तस्वीरें दिखाता है।
आपके, हमारे, मेरे एक सामान्य शौक- फिल्मों को यह फ़िल्म जश्न के तौर पर मनाती है। बायस्कोपवाला के लिए फिल्में केवल चलती-फिरती कहानियों की तस्वीरें नहीं, लोगों की सोच बदलने का एक जरिया है। हिंदी फिल्मों ने ऐसा किया है ही।
गीतांजली थापा अपने फिल्मी करियर का सर्वश्रेष्ठ इस फ़िल्म को देती है- यह रवींद्रनाथ टैगोर की मिनी जैसी है, पर सिर्फ कुछ हद तक। अब मिनी बासु फ्रांस में एक प्रसिद्ध डॉक्यु-फ़िल्म मेकर बन चुकी है। उसका एक फ्रांसीसी प्रेमी भी है- मिशेल। यह दोनों अफ़ग़ानिस्तान जाकर बायस्कोपवाले की खोई सौगात लाने को तत्पर हैं। डैनी डेन्जोंगपा अपने बायस्कोपवाला किरदार को जीवित कर देते हैं। पर सबसे कलात्मक प्रदर्शन आदिल हुसैन, टिस्का चोपड़ा और एकावली खन्ना ने दिए हैं- वे मिनी के पिता, रहमत खान की सहचरी और मिनी के पिता की प्रेमिका के रूप में स्क्रीन पर चमकते हैं। लेखन अविश्वसनीय रूप से अच्छा है। दृश्य सौंदर्य 'कंपेलिंग' सम्मोहक है।
कुल मिलाकर देब मधेकर के की 'बायोस्कोपवाला' आपके दिल मे घर कर जाती है- भले आपने काबुलीवाला न ही पढ़ी हो। इसे ज़रूर देखें।0October 20, 19